रविवार, 25 अक्तूबर 2009


भारत में यह धारणा आम है कि स्तालिन ने नेताजी को साइबेरिया में कैद कर रखा था। जबकि मेरी धारणा यह है कि स्तालिन और तोजो ने मिलकर नेताजी को सोवियत संघ में शरण दिया था। साइबेरिया की जेल को नेताजी ने ख़ुद चुना था- अपने अज्ञातवास के लिए। इसी प्रकार, गांधीजी और नेहरूजी के प्रति भी मेरी कुछ धारणाएं हैं प्रस्तुत कर रहा हूँ।

पहले गांधीजी। गांधीजी सिर्फ़ उन्हीं लोगों को पसंद करते थे, जो उनकी 'महानता' के आगे नतमस्तक होना स्वीकार करते थे। सुभाष ऐसे नही थे। सुभाष का कहना था- गांधीजी, अभी 'अहिंसा' की बातें मत कीजिये। पहले देश आजाद हो जाए, फिर हम आपको देश के सिंहासन पर बैठाएंगे, आपके पैर धोयेंगे और तब कहेंगे- अब आपकी 'अहिंसा' की बातों का समय आ गया। सुभाष के व्यक्तित्व से प्रभावित होते हुए भी गांधीजी उसे कभी पसंद नहीं कर सके। सुभाष जन्मजात "नेता" थे, किसी के भी सामने वे 'नतमस्तक' नही हो सकते थे- हालाँकि, गांधीजी की वे बहुत इज्जत करते थे। १९३८ में गांधीजी के खुले विरोध के बावजूद सुभाष कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए (हरिपुरा अधिवेशन)। १९३९ में (त्रिपुरा अधिवेशन) तो गांधीजी ने स्पष्ट कहा कि 'पट्टाभि सीतारामैय्या की हार मेरी हार होगी', फिर भी सुभाष अध्यक्ष चुन लिए गए। संदेश साफ़ था कि देश का भावी नेता सुभाष बनने वाले थे... नेहरू नहीं... और यह बात गांधीजी के लिए बर्दाश्त से बाहर थी। नेहरू के प्रति गांधीजी का जो यह "सॉफ्ट कार्नर" था, वह सिर्फ़ इसलिए कि नेहरू गांधीजी के सामने 'नतमस्तक' थे (कम-से-कम नतमस्तक होने का ढोंग कर रहे थे। 'ढोंग' इसलिए कि सत्ता अधिग्रहण के बाद गांधीजी के सिद्धांतों के ठीक विपरीत जाकर उन्होंने शासन किया। जहाँ गांधीजी छोटे-छोटे उद्योग-धंधों का जाल देश में बिछाना चाहते थे, वहीँ नेहरू ने बड़े-बड़े उद्योग खड़े कर दिए। गांधीजी सत्ता का विकेद्रीकरण चाहते थे, नेहरू ने सत्ता का केन्द्रीकरण कर दिया।) - जबकि सुभाष नही।


इस देश के साथ "नियति" ने बहुत सारे छल किए हैं। १० वीं ११ वीं सदी में जब देश के पशिमोत्तर प्रान्त पर आक्रमण हो रहे थे, तब वहाँ किलेबंदी करने के बजाय हम 'खजुराहो' में नारी देह कि सुंदर प्रतिमाएँ गढ़ने में व्यस्त थे। शेरशाह सूरी को सिर्फ़ ५ वर्ष मिले- शासन करने को। दारा शिकोह जीतते-जीतते औरंगजेब से हार गया। पलासी की लड़ाई (१७५७) में संयोगवश अंग्रेज सेना ने आम के बगान में मोर्चा बांधा था, जबकि सिराजुद्दौला की सेना खुले में थी- रात बारिश हुई और सिराज की सेना का बारूद भींग गया, वरना अंग्रेज कलकत्ता से दिल्ली की ओर नही बढ़ते। १९२२ में आजादी मिलने ही वाली थी, मगर एक 'अहिंसा' की बात पर गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन ही वापस ले लिया- वे चाहते तो ख़ुद को आन्दोलन से अलग कर सकते थे। १९३९ में गांधीजी की जिद्द और विरोध के चलते सुभाष को कांग्रस के अध्यक्ष पड़ से इस्तीफा देना पड़ा। १९४५ में नेताजी दिल्ली पहुचते, इसके पहले ही 'अनु बम' का अविष्कार हो गया और उसे जापान पर गिरा दिया गया। हालाँकि, भारी बारिश ने भी आजाद हिंद सेना को मणिपुर से आगे बद्गने से रोक दिया था। आजादी (वास्तव में "सत्ता हस्तांतरण") से ठीक पहले कांग्रेस की प्रांतीय कमिटियों ने सरदार पटेल को अध्यक्ष चुना था- नेहरू को नहीं; मगर यहाँ भी गांधीजी की जिद्द ने नेहरू को अध्यक्ष बनाया, जिससे प्रधानमन्त्री बनने के लिए उनका रास्ता साफ़ हुआ।

अब नेहरूजी की बात। नेहरू के मन में सुभाष को लेकर दो ग्रंथियां थीं। एक- सुभाष नेहरू के मुकाबले बहुत ज्यादा प्रतिभाशाली थे। दो- सुभाष का व्यक्तित्व नेहरू से कहीं ज्यादा प्रभावशाली था। सुभाष की प्रतिभा का अनुमान आप इस बात से लगा सकते हैं की अपने पिता का मन रखने के लिए वे ICS (अब IAS) की परीक्षा में शामिल होने (जुलाई १९२० में) इंग्लैंड गए। आठ महीनों की तयारी में ही उन्होंने परीक्षा में दूसरा स्थान प्राप्त किया। जहाँ तक व्यक्तित्व की श्रेष्ठता का सवाल है, आप दोनों की तस्वीरों को सामने रखकर देखें- फर्क नजर आ जाएगा की किसके चेहरे पर तेज है और किसका चेहरा निस्तेज है। इन्ही दोनों ग्रंथियों के कारण जब स्तालिन का गोपनीय पत्र उन्हें मिला (जिसमे भारतीय स्वतंत्रता सेनानी- यानि नेताजी- को वापस भारत बुलाने का आग्रह था), तो उन्होंने यही जवाब दिया की वे जहाँ है, उन्हें वही रहने दिया जाय।

उन दिनों भारत में कुछ ऐसा माहौल था की सोवियत संघ से नेताजी की हवाई सेना अब दिल्ली पहुँची की तब पहुँची! ऐसे में अगर भारत सरकार "राष्ट्रद्रोह" का आरोप (जो की अंग्रेज लगाकर गए थे और भारत जिसका पालन कर रहा था) समाप्त करते हुए नेताजी को भारत आने की अनुमति दे देती, तो देश की जनता खुशी से पागल होकर उनको सर-आंखों पर बिठा लेती। यह किसीके लिए ना-काबिले-बर्दाश्त होता। सो, नेताजी को भारत आने से रोक दिया गया।

पुनश्च:

विमान-दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु की बात पर गांधीजी ने भरोसानहीं किया था। जब उनसे कहा गया की टोकियो के रेंकोजी मन्दिर में उनका अस्थि-भस्म भी रखा है, तो गांधीजी का जवाब था- अरे, किसी और का भस्म वहाँ लाकर रख दिया होगा!

प्रचारित कहानी के अनुसार १८ अगस्त १९४५ को ताइहोकू हवाई अड्डे से दोपहर दो-पैंतीस पर उड़ान भरने के कुछ ही मिनटों बाद विमान धरती पर आ गिरा था। विमान का इंजन खुल कर गिर गया था। विमान में आग लग गई। जनरल सिदेयी और मुख्य विमान चालक घटनास्थल पर मारे गए, नेताजी और सह-पायलट झुलस गए और कर्नल हबीबुर्रहमान तथा अन्य जापानी सैन्य अफसर मामूली घायल हुए। घायलों को कुछ किलोमीटर दूर मिनामी बोन सैन्य अस्पताल में लाया गया, जहाँ रात में नेताजी और सह-विमान चालाक की मृत्यु हो गई।


अब ध्यान देने की बात यह है कि वह एक बम-वर्षक विमान था, जिसमे न सीट थे और न सीट-बेल्ट। सभी विमान के फर्श पर बैठे थे। ऐसे में विमान के नीचे गिरते वक्त सभी को सिमट कर "Cockpit" (चालक कक्ष) के पास आ जाना था। फिर ऐसा चमत्कार कैसे हुआ कि दुर्घटना में ठीक वे ही चार लोग मृत हुए, जिनकी सोवियत संघ पहुँचने की संभावना थी और बाकी सभी बच गए?

जिस प्रकार एक भारतीय धर्म होते हुए भी बौद्ध धर्म को भारत में कम, मगर जापान और अन्य दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में ज्यादा सम्मान हासिल है; ठीक उसी प्रकार, "चंद्र बोस" को भी भारत में कम मगर जापान और अन्य दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में ज्यादा- बल्कि देवताओं जैसा- सम्मान हासिल है। हम उन्हें "नेताजी" कहकर संबोधित करते हैं, और वे उन्हें "महान भारतीय नेता" कहते हैं!

खैर, तो ताईवानी अख़बार 'सेंट्रल डेली न्यूज़' की "माइक्रो फिल्मों" के अध्ययन से पता चलता है की १८ अगस्त १९४५ के दिन ताइवान (तत्कालीन फारमोसा) की राजधानी ताइपेह के ताइहोकू हवाई अड्डे पर कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त नही हुआ था। न केवल नेताजी एक प्रसिद्ध व्यक्ति थे, बल्कि जनरल सिदेयी भी जापानी सेना के दक्षिण-पूर्वी कमान के कमांडर थे। इनकी मृत्यु एक विमान दुर्घटना में हो जाए और उस अख़बार में न छपे ऐसा हो ही नही सकता! कम-से-कम २२ अगस्त को जापान द्वारा (गोपनीयता समाप्त करते हुए) इस दुर्घटना की ख़बर प्रसारित करने के बाद तो इस अख़बार में इस ख़बर को छपना ही चाहिए था। मगर ऐसा नही हुआ, क्यों? क्योंकि कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नही था। जबकि इसी अख़बार में कुछ ही दिनों बाद १४ सितम्बर १९४५ को भारत में नेताजी के परिवारजनों की रिहाई की मामूली-सी ख़बर छपती है।

"धुरी राष्ट्र" के तीनों देश- इटली, जर्मनी और जापान- साम्राज्य बढाने के लिए युद्ध कर रहे थे, जबकि नेताजी ने इनकी मदद ली थी अपने देश को आजाद कराने के लिए। इस लिहाज से उनकी हैसियत एक 'स्वतंत्रता सेनानी' की बनती है। उनपर अंतर्राष्ट्रीय युद्धापराध का मुकदमा नही चलना चाहिए था। मगर ब्रिटेन और अमेरिका ने पहले ही अपनी मंशा जाहिर कर दी थी की नेताजी पर भी अंतर्राष्ट्रीय युद्धापराध का मुकदमा चलाया जाएगा। ब्रिटेन भले भारत को आजादी देने जा रहा था- फिर भी नेताजी को उसने राष्ट्रद्रोही घोषित किया. ब्रिटिश राजमुकुट के खिलाफ बगावत करने के जुर्म में उनपर मुकदमा चलाने के लिया वह बेताब था।

स्तालिन और तोजो (जापान के सम्राट) नही चाहते थे की नेताजी ब्रिटिश-अमेरिकी हाथों में पड़े। स्तालिन नेताजी को सोवियत संघ में शरण देना तो चाहते थे, मगर चूँकि वे "मित्र राष्ट्र" में शामिल हो चुके थे, इसलिए अंदेशा यह था की ब्रिटेन और अमेरिका उनपर भारी दवाब बनायेंगे। इसलिए विमान दुर्घटना में नेताजी को "मृत" दिखाने का नाटक रचा गया। जब दस्तावेज पर नेताजी को "मृत" ही दिखा दिया जाएगा, तो भला ब्रिटेन और अमेरिका स्तालिन से नेताजी को मांगेंगे कैसे?

तो फारमोसा (ताइवान) के ताइपेह हवाई अड्डे से मंचूरिया होते हुए सोवियत संघ जाने वाले विमान को ताइपेह हवाई अड्डे पर ही दुर्घटनाग्रस्त दिखा दिया गया और इसमे उन चारों को मृत बता दिया गया, जिन्हें सोवियत संघ में प्रवेश करना था- १। नेताजी, २। उनके सहयोगी और संरक्षक के रूप में जनरल सिदेयी, ३। विमान चालाक मेजर ताकिजावा और ४। सहायक विमान चालक आयोगी।

इस प्रकार नेताजी ने सोवियत संघ में शरण भी ले लिया और ब्रिटेन तथा अमेरिका ('मित्र राष्ट्र' की दुहाई देकर) स्तालिन से नेताजी को मांग भी नही सके। हालाँकि ब्रिटिश-अमेरिकी जासूसों ने अपने स्तर पर विमान दुर्घटना की जांच की थी, और कोई साबुत न पाकर इसे झूठ समझा था। उनका अनुमान था की नेताजी मंचूरिया के रस्ते सोवियत संघ में शरण ले चुके हैं। वे जानते थे की एडी-चोटी का जोर लगाकर भी वे नेताजी को सोवियत संघ से हासिल नहीं कर सकते। अंत में दोनों देशों ने "नेताजी जहाँ हैं, उन्हें वहीँ रहने दिया जाय" का निर्णय लेकर मामले का पटाक्षेप कर दिया।

पुनश्च: यहाँ इस बात का जिक्र प्रासंगिक होगा की जर्मनी प्रवास के दौरान नेताजी ने आजाद हिंद रेडियो पर भाषण देते हुए कभी भी हिटलर की, या हिटलर के नात्सीवाद की तारीफ नहीं की! अर्थात वे सिर्फ़ भारत की आजादी के लिए उनसे मदद चाहते थे, उनके नात्सीवाद के समर्थक नेताजी नहीं थे।

hum yah keh sakten hain ki netaji aaj bhi jinda hain.